इस हफ्ते सिनेमा घरों और ओ टी टी सब जगह इतनी फिल्में और सीरीज रिलीज हुई है की एक तो आपका चुनाव करना जरूरी है उनमें से क्या देखा जाए और क्या छोड़ दिया जाए। सिने प्रेमी भी देखने बैठेंगे तो दो-चार दिन या पूरा हफ्ता तो आराम से निकल ही जाएगा। रिलीज की इसी भीड़ में 'मिताली राज' की बायोपिक 'शाबाश मिठू' भी रिलीज हुई है तो आईये पढ़ते हैं स्पोर्ट्स गलियारा के लिए तेजस पूनियां द्वारा लिखा गया रिव्यू
जहाँ हाथ वहाँ नृत्य , जहाँ नृत्य वहाँ मन
जहाँ मन वहाँ भाव जहाँ भाव वहीं आंनद
फिल्म की कहानी
फिल्म की शुरूआत में ही आने वाले एक श्लोक के ये भाव जहाँ फिल्म के भावों और उसमें निहित आनन्द की बात कर जाता है वहीं इस फिल्म की सार्थकता भी नजर आती है। लेकिन साथ ही फिल्म में दो सीन ऐसे भी देखने को मिलते हैं जो कहीं न कहीं भेदभाव को भी साफ साफ दर्शा जाते हैं।
क्रिकेट की दुनियां के भगवान तो पुरुष टीम के लोग ही कहे जाते हैं लेकिन शायद दुनियां के बहु तेरे लोग आज भी भुले बैठे हैं कि यह दुनियां महिलाओं से ही बनी है। और उन्हें भी कम नहीं आंकना चाहिए वे पुरुषों से हमेशा कुछ कदम आगे ही रही हैं।
भारत की महिला क्रिकेट टीम जब इंग्लैंड के दौरे पर जा रही है। तो उन्हें न कोई एयरपोर्ट कोई छोड़ने आता है और तो और वहाँ मौजूद लोग तक उन्हें नहीं पहचान पाते बल्कि जब पुरुष टीम वहाँ से गुजरती है तो एक तो महिला क्रिकेट टीम की खिलाडी (टीम की कप्तान मिताली राज) के हाथ में ही कैमरा पकड़ा देता है कि वो उसकी फोटो खींचे। जब सब पुरुष टीम के पीछे पागल हों तो महिलाओं की क्या बिसात। यह सीन दर्शाता है कि आज भी आम लोग उन्हीं पुरुषों के पीछे पड़े रहते हैं।
Shabaash Mithu Movie Download |
स्क्रिप्ट में रह गई कमी
क्रिकेट की दुनियां को लेकर सिनेमा की दुनियां में अब तक अनगिनत फिल्में बन चुकी है और बायोपिक के मामले में भी यह फिल्म हिंदी सिनेमा के तय कर दिये गए फॉर्मेट से बाहर नहीं निकल पाती है। यही वजह है की यह अच्छी तो बन पड़ी लेकिन प्रभावित नहीं कर पाई। स्क्रिप्ट में कई जगह जगहों पर झोल खाती यह फिल्म अपनी ही लाइन लैंथ भूलकर लम्बी हो गई इतनी की रोके न रुकी। फिर इस फिल्म को बनाने वालों की टीम को लगा हो कि ज्यादा खिंच रही है तो बिना कोई ज्यादा तूफान खड़ा किये इसे समेट दिया जाता है।
बेहतर होता फिल्म के शुरुआती हिस्सों पर ही लगाम कस ली जाती तो यह शानदार सिक्सर जड़ती जाती। आधे में मिताली का बचपन और फिर आधे में बाकी का काम दिखाने के चक्कर की बजाए मिताली के जीवन को थोड़ा और गहराई से दिखाया जाता तो बेहतर होता। यह फिल्म मिताली के जीवन के संघर्ष को भी कुछ ही पल देकर खत्म कर देती है जिसके चलते भी रोमांच और क्रिकेट को पर्दे पर देखते हुए अजीब सी कसमसाहट जो 'धोनी' और 'सचिन' की बायोपिक में थी नजर नही आती। फिल्म के निर्देशक श्रीजित मुखर्जी ने फिल्म के विषय को तो अच्छा चुन लिया लेकिन कायदे से उसे पर्दे पर उतार पाने में वे खुद भी फिसले हैं।
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चाहे जो हो असल जीवन में मिताली राज ने जो मकाम पाया तथा और लड़कियों को भी उसके लिए प्रेरित किया वह काबिले गौर है। भारतीय महिला क्रिकेट को मिताली राज ने अपने अच्छे खासे लम्बे सफर से कई चीजें सिखाई हैं। उन्हें मिलने वाले सम्मान भले ही कुछ देर से मिले हों लेकिन उनके इन सम्मानों की उपलब्धि तो कम से कम ठीक से दिखाई जाती। ऐसा भी नहीं है कि फिल्म न देखे जाने योग्य बनी है बल्कि कुछ एक कमियों को छोड़ दिया जाए तो यह बेहतर है। उसका बचपन, भरतनाट्यम की टैक्नीक का क्रिकेट खेलते समय इस्तेमाल, नूरी से दोस्ती और उससे अलग होने, विछोह का दुख, संताप के सीन भी कायदे से गढ़े गए हैं।
मिताली के किरदार में छा गई तापसी
'तापसी पन्नू' ने मिताली राज के किरदार को जमकर पर्दे पर जिया है। 'विजय राज़' बेहद प्रभावी रहे हैं। 'बृजेन्द्र काला' भी जब जब आये पर्दे पर अपनी रंगत बिखेर गए। समीर धर्माधिकारी, मुमताज़ सरकार, शिल्पी मारवाह, बेबी इनायत वर्मा, बेबी कस्तूरी जगनम, नीलू पासवान, देवदर्शिनी आदि सब अपना बेहतर अभिनय करते नजर आते है। गाने सुनने में तो अच्छे लगते हैं लेकिन इतने ज्यादा हैं कि फिल्म की लैंथ बिगाड़ते हैं। बैक ग्राउंड स्कोर, कैमरा वर्क कमाल का है। सिनमैटोग्राफी औसत से कहीं उपर रही है।
अपनी रेटिंग - 3.5 स्टार
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